Friday, January 8, 2016

“ झारखण्ड की काली दाल “


झारखण्ड की राजनीति पूरे देश की राजनीति में छाये भ्रष्टाचार,
भाई-भतीजावाद और किसी भी तरह से, किसी भी हद तक जाकर पैसा कमाने की
प्रवृत्ति को अभिव्यक्त करती है। साथ ही यह भारत की भ्रष्ट पूंजीवादी
राजनीति के उस रोग को भी दिखलाती है जिसका ठीक होना अब किसी भी तरह सम्भव
नहीं है। झारखण्ड प्राकृतिक सम्पदा खास तौर पर खनिज सम्पदा से सम्पन्न
राज्य है। कोयला, लोहा जैसे बहुमूल्य खनिजों को लेकर इस वक्त झारखण्ड में
विभिन्न देशी-विदेशी पूंजीपतियों के बीच तीखी होड़ मची हुयी है।
आदिवासियों को निर्ममतापूर्वक उनकी जमीन से बेदखल किया जा रहा है।
झारखण्ड की मुंडा सरकार ने तथाकथित स्थिर शासन में पूंजीपतियों का हित
साधने व जनता का क्रूर दमन करने की एक से बढ़कर एक मिसालें कायम की ।
राजनैतिक दलों के नेता झारखण्ड के खनिज सम्पदा की बंदरबांट में बराबर के
हिस्सेदार रहे । मधुकोड़ा जो कि एक समय झारखण्ड का मुख्यमंत्री था ने
बेशुमार दौलत ऐसे ही इकट्ठा की थी। शिबू सोरेन तो अपनी पक्षधरता की कीमत
कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा से वसूलते ही रहे हैं। इस तरह झारखण्ड का पूरा
राजनैतिक परिदृश्य भारतीय पूंजीवादी राजनीति के सबसे घृणित चेहरे को अपने
जन्म से ही व्यक्त करता रहा है। झारखण्ड के पास विकास के लिए सारे
प्राकृतिक संसाधन मौजूद हैं, फिर भी पिछले दस सालों से यूपीए सरकार कि
गलत नीतियों और कोयला खदानों के गलत आबंटन की वजह से राज्य को इसका हक़
नहीं मिला, जिसकी वजह से यहां औद्योगिक विकास नहीं हो सका.
 आयकर अधिकारियों के अनुसार इस मामले में अब तक 3,000 करोड़ रुपये के
अवैध लेनदेन का पता चला है।इसके अलावा राज्य में 110 करोड़ रुपये के
तारकोल घोटाला और 300-400 रुपये का ग्रामीण विद्युतीकरण घोटाला शामिल है।
राज्य में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के कम से कम आठ अधिकारियों के
खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले चल रहे | झारखण्ड देश का पहला राज्य है जहां
इतनी बड़ी संख्या में नेता भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त पाए गए हैं।
अब तक राज्य में छ: पूर्व मंत्रियों सहित एक पूर्व मुख्यमंत्री
भ्रष्टाचार के मामले में फंस चुके हैं।खनिज संपदा ही नहीं घोटालों के लिए
भी उपजाऊ है झारखण्ड
झारखण्ड में अब तक के हुए घोटाले से पता चलता है  दाल में कुछ   काला
नही “ “    “झारखण्ड की पूरी  दाल ही काली  है  “
झारखण्ड की राजनीति पर नजर  डालें तो समझ में आता है कि अब तक जितनी
सरकारें बनीं वे सभी स्वयं में असुरक्षित रहीं।जब झारखण्ड अस्तित्व में
आया तो बाबूलाल मरांडी प्रथम मुख्यमंत्री बने, बहुमत नहीं था, पर, कुछ
विधायकों का समर्थन लिया और चल पड़े। नई सरकार नया उत्साह, पर जिन
परेशानियों  का  सामना  मरांडी  को  करना   पड़ा  उससे  अर्जुन  मुंडा
भी अछूते   नहीं   रहे |  प्रारम्भ से ही लंगड़ी लग गई थी। ग्रहण पीछा
नहीं छोड़ रहा था।उन्होंने जैसे-तैसे सन् 2003-05 तक सरकार चलाई। चुनाव
घोषित हुआ। भाजपा को तीस सीटें मिलीं। कांग्रेस को मात्र नौ और राजद को
छह। भाजपा और जदयू मिलाकर कुल 36 सीटें हुइं। ऐसे में मानो निर्दलियों की
लाटरी लग गई हो। वे चांदी की गद्दी बिछाने और सोने के तकिये पर सोने की
जुगाड़ में लग गए। इधर तत्कालीन राज्यपाल ने सरकार बनाने से पहले राज्य
में राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर दी। उन्होंने सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को
सरकार बनाने के लिए नहीं बुलाया, बल्कि झामुमो के प्रमुख शिबू सोरेन को
बुलाकर संविधान को धता बता दी। इसके विरोध में भाजपा विधायकों ने
राष्ट्रपति भवन के समक्ष परेड की। सोरेन विश्वास मत प्राप्त नहीं कर सके।
अंतत: अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने। आखिर कांग्रेस भाजपा को कब तक सरकार
में देखती। उसे अर्जुन मुण्डा की सरकार तनिक भी नहीं सुहा रही थी। अर्जुन
मुण्डा की सरकार को कांग्रेस की केन्द्र सरकार ने सदैव गिराने की कोशिश
की।
अंतत: अर्जुन मुंडा की सरकार गिराई गई। राष्ट्रपति शासन लगा और कुछ दिनों
बाद एक निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा को कांग्रेस, राजद और झामुमो ने समर्थन
दिया। मधु कोड़ा मुख्यमंत्री कठपुतली की तरह इशारे पर नाचे। सबसे बड़ी
पार्टी विपक्ष में और एक निर्दलीय, कुछ निर्दलियों के साथ मिलकर और कुछ
दलों का समर्थन लेकर झारखण्ड का मुख्यमंत्री बन गया। यह अजूबा रहा।
 मधु कोड़ा बिना आधार के मुख्यमंत्री बन गए। झारखण्ड का भाग्य फूट गया।
कांग्रेस एक कमजोर व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाकर अपने अनेक हित साधे।
इतने किस्से मधु कोड़ा के मुख्यमंत्री बनते ही शुरू हुए, लगने लगा कि मधु
कोड़ा मुख्यमंत्री कम , दुधारू गाय अधिक हैं। जो मधु कोड़ा को समर्थन दे
रहे थे, वे कांग्रेस, राजद या झामुमो पूरी तरह मौन थे। कोड़ा से विकास की
क्या उम्मीद करते। कांग्रेस को कोई चिंता नहीं हुई। विरोध के स्वर फूटे।
कांग्रेस ने कहा चलो सोरेन को बना दो। आरोपों में डूबे सोरेन की तो पहले
भी इच्छा पूरी नहीं हो पाई थी। वे अनिश्चित और व्याकुल थे। कांग्रेस ने
यहां भी चाल चली। सोरेन के कंधे पर बंदूक रख दी। सोरेन का सपना पूरा हुआ।
वे जानते थे कि वे सालभर में क्या कर सकते हैं, पर हाय री कुर्सी! मरता
क्या न करता। वे पांच-छ: माह तो रह ही सकते थे, वे रहे। संविधान के
अनुसार उन्हें चुनाव लड़ना था, लड़े। एक निर्दलीय राजा पीटर से वे पिट
गए। यहां यह कहना समीचीन होगा कि सोरेन पिटे या जानबूझकर पिटवाए गए, उनसे
बेहतर और कौन जान सकता था।
एक मुख्यमंत्री निर्दलीय से चित्त हो जाए, यह किसी ने नहीं सोचा था। लगा
दिया गया राष्ट्रपति शासन।संवैधानिक उपचारों की धज्जी उड़ा राष्ट्रपति
शासन चलता रहा। इस बीच देश में लोकसभा के चुनाव हुए। कांग्रेस जो सोच रही
थी, उसे वैसी सफलता झारखण्ड में नहीं मिली। झारखण्ड में पासा उल्टा पड़ा।
भाजपा को आठ लोकसभा ( एक) सीटों पर और कांग्रेस को मात्र एक सीट पर सफलता
मिली।
झारखंड की राजनीति  किसी फ़िल्मी ड्रामे की तरह हो गयी, जहां हर घंटे कोई
नया ट्विस्ट सामने आता   है. कभी निर्दलियों का लोचा तो कभी विपक्ष का
पेंच तो कभी कानून का डर कभी JMM के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भाभी और
जामा से विधायक सीता सोरेन अपहरण के मामले में  कई महीनों से फरार  तो
कहीं
JMM के दूसरे विधायक नलिन सोरेन भी करोड़ों के बीज घोटाले में फरार कोयला
   माफियाओं  के  साथ    मिलकर
 करोड़ो   की  भू  सम्पदा  का  घोटाला
झारखंड के विकास को लेकर  जो सपना जनता  ने   देखा था वो अभी तक पूरा
नहीं हो पाया है. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि पिछले 14 सालों में इस
राज्य में पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं होने से यहां अन्य दलों को सौदेबाजी
करने का मौका मिला और इसी वजह से जब जिस दल को मौका मिला, तब उसने
सौदेबाजी के बल पर अपनी सरकार बनायी. इस मामले में  कांग्रेस के पूर्व
प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव  का  नाम  पहले  आता  है  झारखण्ड में
सौदेबाजी की राजनीति उसी समय शुरू हो गयी थी जब राव ने अपनी सरकार बचने
के लिए यहां के राजनेताओं से सौदेबाजी की थी. हेमंत सोरेन के नेतृत्व में
झारखंड में जेएमएम-कांग्रेस गठबंधन वाली नई सरकार का गठन तो हो गया,
लेकिन गठन के बाद राज्य की राजनीति शतरंज की बिसात बन गयी ,  इसमें पक्ष
और विपक्ष दोनों एक-दूसरे को मात देने की तिकड़म में लगे रहे .
भाजपा नेता रघुवर दास ने  चौदह वर्षां के झारखंड के इतिहास में दसवें
मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की और अहम बात यह है कि वह राज्य के
पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बने हैं।रघुवर दास से पहले राज्य में कुल
नौ मुख्यमंत्री बन चुके हैं और यहां तीन बार राष्ट्रपति शासन भी लग चुका
है। हालांकि इस बार भाजपा और आज्सू गठबंधन को पहली बार राज्य में पूर्ण
बहुमत की सरकार बनाने का अवसर मिला है जिससे आम जनता को स्थिर सरकार चलने
की आशा बंधी है।15 नवंबर, 2000 को राज्य के गठन के तुरंत बाद भाजपा के
बाबूलाल मरांडी को राज्य का पहला मुख्यमंत्री बनाया गया था। वह 17 मार्च,
2003 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे जब पार्टी के अंदरूनी विद्रोह और जदयू
के कथित दबाव के चलते राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ और 18 मार्च, 2003 को
भाजपा के अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया गया। वह अपने पहले कार्यकाल
में दो मार्च, 2005 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे।

इसके बाद दो मार्च, 2005 को ही झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रमुख शिबू
सोरेन तीसरे मुख्यमंत्री बने लेकिन उनकी सरकार सिर्फ दस दिनों की रही।
उन्हें 12 मार्च, 2005 को सत्ता से हटना पड़ा और एक बार फिर 12 मार्च को
ही अर्जुन मुंडा ने चौथे मुख्यमंत्री के रूप में राज्य की सत्ता संभाली
लेकिन यह 14 सितंबर, 2006 तक ही उनके हाथ रही। 14 सितंबर 2006 को
मंत्रिमंडल में शामिल निर्दलीय मंत्रियों ने मुंडा का तख्ता पलट दिया। 14
सितंबर 2006 को नए समीकरण के साथ निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा झारखंड के
मुख्यमंत्री की गद्दी पर काबिज हुए।

कोड़ा ने मुख्यमंत्री के रूप में 709 दिन कामकाज किया, लेकिन यह सरकार भी
अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। पद से हटने के बाद कोड़ा पर भ्रष्टाचार
समेत कई मामले दर्ज हो गए।

27 अगस्त 2008 को शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बने। शिबू के लिए डगर आसान
साबित नहीं हो सकी। विधायक बनने के लिए उन्हें उपचुनाव लड़ना पड़ा।
दिसंबर में तमाड़ विधानसभा उपचुनाव में शिबू हार गए और मात्र 114 दिनों
बाद ही उन्हें मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। वैकल्पिक सरकार नहीं
बनने से राज्य में 19 जनवरी 2009 से 29 दिसंबर 2009 तक राष्ट्रपति शासन
लगाया गया।

राज्य में मध्यावधि चुनाव हुए और फिर मतदाताओं ने खंडित जनादेश दिया।
भाजपा और झामुमो को 18-18 सीटें मिलीं। दोनों दल बड़ी पार्टियों के रूप
में सामने आई।

इसके बाद भाजपा और झामुमो ने मिलकर सरकार बनाई और तीसरी बार 30 दिसंबर
2009 को शिबू मुख्यमंत्री बने। लोकसभा में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन
(संप्रग) के पक्ष में वोट देने के कारण 152 दिनों बाद ही 31 मई 2010 को
उन्हें फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी।

किसी दल को बहुमत नहीं रहने के कारण फिर से एक जून 2010 को राज्य में
राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। 11 सितंबर 2010 को झामुमो और ऑल झारखंड
स्टूडेंटस यूनियन (आजसु) के साथ मिलकर भाजपा ने सरकार बनाई और अर्जुन
मुंडा मुख्यमंत्री बने। सात जनवरी 2013 को झामुमो के समर्थन वापस लेने के
बाद मुंडा को आठ जनवरी को इस्तीफा देना पड़ा।झारखण्ड के भाग्य की विडंबना
चौदह वर्षों में तीन राष्ट्रपति शासन और दस मुख्यमंत्री
श्रीबाबू   लाल                     मरांडी कार्यकाल
:15नवंबर,                                                      2000
से 17                   मार्च  ,2003
श्रीअर्जुनमुण्डा  कार्यकाल:18मार्च,2003
से 01 मार्च, 2005
श्री शिबू सोरेन
कार्यकाल:02 मार्च, 2005
से 11 मार्च, 2005
श्री अर्जुन मुण्डा
कार्यकाल:12 मार्च, 2005
से 14 श्री मधु कोड़ा
कार्यकाल:18 सितम्बर, 2006
से 24 अगस्त, 2008 सितम्बर, 2006
श्री शिबू सोरेन
कार्यकाल:27 अगस्त,2008
से 12 जनवरी, 2009

श्री शिबू सोरेन
कार्यकाल:30 दिसम्बर,2009
से 31 मई, 2010
श्री अर्जुन मुण्डा
कार्यकाल:11 सितम्बर, 2010
से 18.01.2013 तक
श्री हेमंत सोरेन
कार्यकाल:13 जुलाई, 2013 से 23.12.2014

श्री रघुवर दास
कार्यकाल:28 दिसम्बर, 2014 से अब तक
झारखण्ड अपने जन्म से लेकर अभी तक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। पहली
बार चुनाव में स्थिर सरकार का मुद्दा बन पाया है। लोगों के मन में यह बात
घर कर गई है कि अगर एक गठबंधन की सरकार झारखण्ड में नहीं बनी और निर्दलीय
पुन: हावी रहे तो झारखण्ड को पुन: अस्थिरता की त्रासदी झेलनी होगी।
अस्थिरता की त्रासदी से उबरना ही झारखण्ड की प्राथमिकता है।
ये  झारखण्ड के भाग्य की विडंबना है  चौदह वर्षों में तीन राष्ट्रपति
शासन और दस मुख्यमंत्री बदले गए |

(सन्दर्भ )  साभार गूगल , समाचार पत्र ,  अन्य पत्र -पत्रिकाएं |

"रजनी मल्होत्रा नैय्यर "
बोकारो थर्मल ( झारखण्ड )

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