Wednesday, December 1, 2010

आज धीरे से पांव उतारा है

आज धीरे से पांव उतारा है ,
राजनीति के दलदल में,
ये सोंच कर ,
शायद कर सकूँ ,
एक सवच्छ समाज का निर्माण
विचलित सा है ,
अडिग सा रहनेवाला मन ,
कमी आ गयी है ,
अटूट मनोबल में.
हर झोका पवन का
जो बिखरती थी अपनत्व सा ,
आज बंट कर रह गयी ,
जातिवाद के बंधन में.
अब सच्चाई के साथ ,
नहीं लड़ा करते लोग,
ये राजनीति ,
बाज़ार हो गयी है ,
नोटों के बोल का,
जो जितना बोल लगाया ,
खरीद ले गया वोटों को .
कितना योग्य है,
ईमानदारी से भरा है ,
कोई फर्क नहीं ,
बस वो ही पलड़ा भारी है,
जो उपर है.चांदी के खनक से.
आज मानवता कों,
यूँ बिकता देख कर ,
मुझे मानव जाति में होना ,
भारी लग रहा लोगों का.
यही चलता रहा तो क्या,
निर्माण कर पाएंगे ??
हम एक स्वच्छ समाज का .
फिर भी मन मेरा ,
अभी तक हारा नहीं,
अब तक उम्मीद है मुझे ,
शायद बदल पाऊं इस भ्रष्ट समाज कों .

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"