आज धीरे से पांव उतारा है ,
राजनीति के दलदल में,
ये सोंच कर ,
शायद कर सकूँ ,
एक सवच्छ समाज का निर्माण
विचलित सा है ,
अडिग सा रहनेवाला मन ,
कमी आ गयी है ,
अटूट मनोबल में.
हर झोका पवन का
जो बिखरती थी अपनत्व सा ,
आज बंट कर रह गयी ,
जातिवाद के बंधन में.
अब सच्चाई के साथ ,
नहीं लड़ा करते लोग,
ये राजनीति ,
बाज़ार हो गयी है ,
नोटों के बोल का,
जो जितना बोल लगाया ,
खरीद ले गया वोटों को .
कितना योग्य है,
ईमानदारी से भरा है ,
कोई फर्क नहीं ,
बस वो ही पलड़ा भारी है,
जो उपर है.चांदी के खनक से.
आज मानवता कों,
यूँ बिकता देख कर ,
मुझे मानव जाति में होना ,
भारी लग रहा लोगों का.
यही चलता रहा तो क्या,
निर्माण कर पाएंगे ??
हम एक स्वच्छ समाज का .
फिर भी मन मेरा ,
अभी तक हारा नहीं,
अब तक उम्मीद है मुझे ,
शायद बदल पाऊं इस भ्रष्ट समाज कों .
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"
Wednesday, December 1, 2010
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2 comments:
ittifaq se hi aapke blog tak aana hua lekin aakar man prasann hua
chintan, vichar ,or moolyon ko khoobsurat shabdon mein bandhkar ek purmani rachna ko racha hai aapne yun to abhi tak jo bhi thoda sa aapko padha ek se behtar ek laga lekin ye chintan kuch jyada hi prabhavi laga ...bandhaii swikar karen
hardik aabhar aapko mera .......
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